Monday 13 June 2011

मकबूल फिदा हुसैन-कंट्रोवर्सी का कैनवास


मकबूल फिदा हुसैन
चित्रकार
कंट्रोवर्सी का कैनवास
- डॉ. ज्योतिष जोशी और अखिलेश
मकबूल फिदा हुसैन, ऐसा नाम है जो भारतीय कला में किवदंती बन गया है। हुसैन का पूरा जीवन संघर्षों और सफलताओं की ऐसी अनुपम कथा है जिसे पढ़ते हुए लोग हतप्रभ रह जाते हैं। हुसैन चाहे कला सृजन करें, चाहे फिल्म बनाएं या सार्वजनिक मंचों पर कोर्इ वक्तव्य दें, फिर भी इनसे कोर्इ कोर्इ विवाद अवश्य ही उभरता है। पर हुसैन फिर भी हुसैन हैं, जिन्होंने भारतीय आधुनिक और समकालीन कला को नर्इ रंगयुक्ति दी है, नया मुहावरा दिया है और रंगों को कैनवास पर बरतने का एक अलग व्याकरण दिया है।
जन्म तो हुसैन का महाराष्ट्र के पंढ़रपुर में 17 सितंबर 1915 को हुआ था, लेकिन बचपन इंदौर में बीता। 1933 तक हुसैन इंदौर में रहे, जहां उनके पिता एक मिल में काम करते थे तथा उनके दादा टिन के लैंप बनाया करते थे। हुसैन का संबंध अपने दादा से ज़्यादा था और वे उनकी इस कारीगरी पर चकित भी हुआ करते थे। साधारण दिखने वाला टिन बातों-बातों में एक अद्वितीय लैंप में बदल जाता था। इस लैंप की छवि मकबूल के मस्तिष्क पर अंकित हो गर्इ। एक दिन बर्तन बाजार में नारायण श्रीधर बेन्द्रे ने उन्हें काम करते हुए देखा। वे उनके काम से प्रभावित हुए और उनके पिता से मिलकर हुसैन को इंदौर कला महाविद्यालय में पढ़ने के लिए तैयार किया। कला महाविद्यालय के प्राचार्य दत्त्ाात्रेय दामोदर देवलालीकर एक कठोर शिक्षक थे। देवलालीकर के रेखांकन और बेन्दे्र का दृश्य चित्रण हुसैन के लिए आकर्षण का विषय बना। बाद के दिनों में देवलालीकर की यही रेखाएं हुसैन की अभिव्यक्ति का माध्यम बनीं। हुसैन ने इस रेखा से घुमाव और अलंकरण निकाल फेंका। अब वे सीधी और सशक्त रेखाएं बन हुसैन की पहचान बनीं।
इंदौर के दिनों में वे सार्इकिल लेकर निकल पड़ते, जिसके कैरिअर पर वे कुछ कैनवास लाद लेते, लालटेन और छाता भी लिए रहते तथा घूम-घूमकर पेंटिंग और रेखांकन करते। उनके समूचे कलाकार-जीवन में छाता और लालटेन ऐसे प्रतीक बन गए जो किसी किसी रूप में उनकी कृतियों में अपनी जगह बना लेते हैं। 1933 में हुसैन अपनी पढ़ार्इ बीच में छोड़कर मुंबर्इ गए और यहां उन्होंने सिनेमा के होर्डिंग्स बनाना शुरू किया। इसी दौरान उनकी शादी हुर्इ और अपना परिवार पालते हुए रात को दुछत्त्ाी पर बैठकर वे चित्र बनाया करते थे। 1947 में भारत आजाद हुआ तब हुसैन के समकालीन अनेक युवा चित्रकारों का भविष्य लंदन, न्यूयॉर्क और पेरिस में नज़्ार आया। धीरे-धीरे एक-एक कर वे सब पश्चिम की तरफ प्रस्थान कर रहे थे। हुसैन अपने चित्रों में आत्मा की तलाश में भारत के उन गांवों में भटकने लगे, जहां रामलीला हुआ करती थी। वे रामलीला के पीछे-पीछे एक गांव से दूसरे गांव घूमा करते और कथा के अंशों को चित्रित कर उनकी प्रदर्शनी गांव की दीवारों पर लगाकर रामलीला की अगली कहानी का मंचन देखते थे।
1956 में हुसैन ने मकड़ी और लैंप के बीच चित्र बनाया, जो हुसैन की शैली की पहचान बना। इस चित्र में पांच स्त्रियां मकड़ी और लैंप के बीच रहस्य की तरह फैली हुर्इ हैं। इन्हीं दिनों उनकी दूसरी कलाकृति जमीन पर हुसैन को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। 1970 में पद्मश्री और 1986 में मध्य प्रदेश शासन के कालिदास सम्मान से सम्मानित हुसैन 93 वर्ष की उम्र में भी युवा कलाकार की तरह सक्रिय थे। हुसैन की तूलिका से अब तक लगभग 25,000 से अधिक कैनवस रंगे जा चुके हैं।
अपनी लगभग एक सदी की उपस्थिति में हुसैन के चित्रों में दो Üाृंखलाएं संपूर्णता में प्रदर्शित नहीं हुर्इ हैं। राम मनोहर लोहिया के कहने पर बद्री विशाल पित्ती के घर रहकर हुसैन ने रामायण चित्रित की। साठ के दशक में बनाए गए ये चित्र हुसैन की कल्पनाशीलता, रचनात्मकता के अद्भुत उदाहरण हैं। पित्ती रामायण Üाृंखला के सारे चित्र अमेरिका के संग्रहालय में लगाना चाहते हैं। आज भी ये चित्र अप्रदर्शित उनके घर पर रखे हुए हैं।
हुसैन के बनाए घोड़े दुनिया-भर में विख्यात हैं। शक्ति के रूपक के तौर पर चित्रित घोड़े अपनी लयात्मकता, रेखाओं की गतिमयता और हल्के कत्थर्इ रंगों में अंकित एक तरह से हुसैन की पहचान और उनकी बेपनाह शक्ति का भी प्रतीक बने। हुसैन ने अनेक फिल्में भी बनार्इ हैं। माधुरी, तब्बू जैसी अभिनेत्रियों को लेकर विवादास्पद भी रहे हैं। 1967 में अपनी पहली बनार्इ फिल्म थ्रू आर्इज़ ऑफ पेंटर पर बर्लिन फिल्म समारोह में गोल्डन बियर सम्मान पाने वाले हुसैन ने माधुरी दीक्षित को लेकर गजगामिनी फिल्म बनार्इ।

डॉ. जोशी ने हुसैन पर पुस्तक लिखी है और अखिलेश प्रसिद्ध चित्रकार हैं तथा हुसैन के साथ करीबी तौर पर काम भी किया है।

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